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माना मुसीबतों के, काँटे बिछे डगर में / डी. एम. मिश्र

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माना मुसीबतों के , काँटे बिछे डगर में
बेफ़िक्र हूँ मैं सबसे मंज़िल मेरी नज़र में

कितने अज़ीज़ हैं वो, फ़ुरसत में याद आयें
मिलते हैं , बिछड़ते हैं, जीवन के जो सफ़र में

अपनों ने हमको छोड़ा, गैरों ने न अपनाया
हालत ये अब हमारी ,न इधर में , न उधर में

न तो दूध के धुले तुम, न ही दूध के धुले हम
ढूँढोगे तो मिलेगी ख़ामी हर इक बशर में

ऐसे तो बात अपनी कैसे भी आप कह लें
अच्छी ग़ज़ल वही पर , हो लय में जो बहर में

बैठे हैं हम किनारे, उम्मीद के सहारे
कश्ती फँसी हमारी, मझधार की भँवर में