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मिट्टी, हवा और मैं / वाज़दा ख़ान
Kavita Kosh से
क्या जरूरत थी सपने तुम्हें
सदियों से मेरे इर्द-गिर्द मंडराने की
राहों में ढूंढती रही हूं अपने सत्व को
कि तुम झट से ढक लेते हो मुझे
तुम कहते थे न-
सूक्ष्म रूप से तुझमें हूं
तेरे हर चिंतन में, तेरी हर सांस में
उतार रही थी उन्हें मैं
मन के फलक से आसमान के फलक
पर, अपना सर्वश्रेष्ठ विधान रचने को
तुममें ढूंढ लिया था
अपना सत्व- धरती, आकाश, सागर
मिट्टी, हवा और मैं.
सब तुझमें विलीन हो गए थे
पलकों की नमी शिव बनने लगी
ये विचार भी तुमने गढ़ा
साधना-ए-शिव बनने का
दिशा बनने लगी, कल्पना रूप ग्रहण
करने लगी.
युग का शाश्वत सत्य तू
उड़ता रहा तितली बन
मेरी देह से अपने अमूर्तन तक.