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मुख़्तसर सी ज़िंदगी में कितनी नादानी करे / 'महताब' हैदर नक़वी

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मुख़्तसर सी ज़िंदगी में कितनी नादानी करे
इन नज़ारों को कोई देखे के हैरानी करे

धूप में इन आब-गीनों को लिए फिरता हूँ मैं
कोई साया मेरे ख़्वाबों की निगह-बानी करे

एक मैं हूँ और दस्तक कितने दरवाज़ों पे दूँ
कितनी दहलीज़ों पे सजदा एक पेशानी करे

रात ऐसी चाहिए माँगे जो दिन भर का हिसाब
ख़्वाब ऐसा हो जो इन आँखों में वीरानी करे

साहिलों पर मैं खड़ा हूँ तिश्ना-कामों की तरह
कोई मौज-ए-आब मेरी आँख को पानी करे