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मुख मंडल बरनन / रसलीन
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बदन अनूप बाको हरत सरोज रूप
अधर ललाई कों बँधूक न धरत हैं।
रूप गरबोली मुख मानिक हँसीली भौंह,
कुटिल कँटीली रसलीन को हरत हैं।
झपकीली पलकें दाँत दारिमी से झलकें मुख
छूटी रहैं अलकें तें कैसे निसरत हैं।
प्रेम मध छाकी करै निपट चलाकी वाकी,
बाँकी बाँकी आँखियाँ कजाकी सी करत हैं॥95॥