मुझको अब इनकी बुलंदी पर भी रश्क़ आता नहीं
देख लो तन्हा खड़ा हूँ पर्वतों के सामने
इक जज़ीरे पर कई बरसों से है मेरा क़याम
रात दिन रहता हूँ गहरे पानियों के सामने
हो ज़बां कोई, है हर इक लफ्ज़ का अपना मिज़ाज
बात यह कैसे कहूँ अब नाकिदों के सामने
मुझको उड़ना है कोई मौसम हो कैसी हो हवा
इक बुलंदी है फ़क़त मेरे परों के सामने।