मुझको इस आग से बचाओ मेरे दोस्तों-2 / रमाशंकर यादव 'विद्रोही'
एक औरत
जो माँ हो सकती है
बहन हो सकती है
बेटी हो सकती है
बीवी हो सकती है
मैं कहता हूँ हट जाओ मेरे सामने से
मेरा ख़ून जल रहा है,
मेरा कलेजा कलकला रहा है,
मेरी देह सुलग रही है,
मेरी माँ को, मेरी बीवी को,
मेरी बहन को, मेरी बेटी को मारा गया है जलाया गया है
उनकी आत्माएँ आर्तनाद कर रही हैं आसमान में
मैं इस औरत की जली हुई लाश पर सिर पटककर
जान दे देता अगर मेरी एक बेटी न होती तो!
और बेटी है कि कहती है-
पापा तुम बेवज़ह ही हम लड़कियों के बारे में इतने भावुक होते हो
"हम लड़कियाँ तो लकड़ियाँ होती हैं जो बड़ी होने पर
चूल्हे में लगा दी जाती हैं"
और ये इंसान की बिखरी हुई हड्डियाँ
रोमन के गुलामों की भी हो सकती हैं और
बंगाल के जुलाहों की भी या फ़िर
वियतनामी, फ़िलिस्तीनी, बच्चों की
साम्राज्य आख़िर साम्राज्य होता है
चाहे रोमन साम्राज्य हो, ब्रिटिश साम्राज्य हो
या अत्याधुनिक अमरीकी साम्राज्य
जिसका यही काम होता है कि
पहाड़ों पर पठारों पर नदी किनारे
सागर तीरे इंसानों की हड्डियाँ बिखेरना
जो इतिहास को सिर्फ़ तीन वाक्यों में
पूरा करने का दावा पेश करता है कि
हमने धरती में शरारे भर दिए
हमने धरती में शोले भड़का दिए
हमने धरती पर इंसानों की हड्डियाँ बिखेर दीं!!
लेकिन,
मैं इस इंसानों का वंशज इस बात की
प्रतिज्ञाओं के साथ जीता हूँ कि
जाओ और कह दो सीरिया के गुलामों से
हम सारे गुलामों को इकट्ठा करेंगे
और एक दिन रोम आएँगे ज़रूर
लेकिन,
अब हम कहीं नहीं जाएँगे क्यूँकि
ठीक इसी तरह जब मैं कविता आपको सुना रहा हूँ
रात दिन अमरीकी मज़दूर
महान साम्राज्य के लिए कब्र खोद रहा है
और भारतीय मज़दूर उसके पालतू चूहों के
बिलों में पानी भर रहा है.
एशिया से अफ़्रीका तक जो घृणा की आग लगी है
वो आग बुझ नहीं सकती दोस्त
क्योंकि वो आग
वो आग एक औरत की जली हुई लाश की आग है
वो आग इंसानों की बिखरी हुई हड्डियों की आग है.