मुझको ज़रूरत क्या, किसी की याद की? / रामगोपाल 'रुद्र'
मुझको ज़रूरत क्या, किसी भी याद की?
लेकिन, भला यह तो कहो, हो कौन तुम;
सूरत तुम्हारी लग रही जानी हुई!
सहसा सहमकर हो गए क्यों मौन तुम?
पलकें तुम्हारी जा रहीं पानी हुई!
क्यों बेधकर मेरी पुतलियों की सतह
तुम पैठ जाना चाहते हो प्राण तक?
क्या फायदा, तल तोड़ने से इस तरह?
हैं भाप बनकर उड़ चुके पाषाण तक!
दिल से उठी, आँखों बुझी यह आग है!
जग से शिकायत हो मुझे क्यों दाद की?
दर्दी अगर हो, तो बनो हमदर्द मत;
हमदर्दियाँ होती बड़ी मक्कार हैं!
बरसात का घर है, करो बेपर्द मत;
बाजार हँसने के लिए तैयार हैं!
जो भेद पाने के लिए हो बेकरार,
वह खोलने से मैं स्वयं लाचार हूँ;
है ख़ुद मुझे ही उस बेखुदी का इन्तजार,
जिसके बिना मैं नींद में बेदार हूँ!
खुद बुत बना हूँ और ख़ुद ही बुतपरस्त;
बलि हो गई है जीभ ही फरियाद की!