भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे छोड़कर के गये हो अधर में / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
मुझे छोड़कर के गये हो अधर में
मैं तन्हा हूँ इतने बड़े अब शहर में
भले दुनिया लोगों से खाली नहीं, पर
नहीं कोई तुम जैसा मेरी नज़र में
बताओ क़दम कैसे आगे बढ़ाऊँ
हज़ारों हैं काँटे बिछे जब डगर में
दिलाओ नहीं याद गुज़रे दिनों की
बची ही नहीं ताब अब वो जिगर में
वो जलवे, वो रौनक , बहारें कहाँ अब
बचा सिर्फ़ खंडहर है दिल के नगर में
हमीं में हमेशा कमी ढूँढते हो
मिलेगी कमी कुछ न कुछ हर बशर में
मुझे वो भी मैख़ाने में कल मिला था
ख़ुदा बन गया था जो मेरी नज़र में