भरा नहीं जिसका अन्तर-सर,
उभरा फूल नहीं जीवन पर,
मधुवन के उस मूर्त मोह को
दिव्य चेतना दे तो कौन?
ऐसा ही अपना जीवन है,
जड़ समाधि में लीन मरण है;
प्राण कण्ठ तक आएँ, तब तो
गान बने अन्तर क मौन!
पाँखों को आँधी ने तोड़ा,
आँखों को पावस ने फोड़ा;
बिन्दुशेष उस शिशिर-नीड़ को
गंध-वेदना दे तो कौन?