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मुझे मालूम है नज़रों में उसकी ख़ंजर है / डी. एम. मिश्र
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मुझे मालूम है नज़रों में उसकी ख़ंजर है
कहूँ किससे कि दगाबाज़ मेरा दिलवर है
कहीं लिक्खा हुआ है क्या किसी के माथे पर
पता कैसे चले रहज़न है कि वो रहबर है
यहाँ ज़रूरतों को देख के क़ीमत लगती
लगी हो प्यास तो क़तरा भी इक समंदर है
फ़िदा हैं लोग वो बातें बड़ी अच्छी करता
किसे पता है क्या छुपाये दिल के भीतर है
मैं किसी और की नज़र से उसे क्यों देखूँ
मेरा जो हो गया मेरे लिए वो सुंदर है
ये ज़रूरी नहीं कि आप की हर बात सुनूँ
मेरा ज़मीर जो कहता वो सबसे ऊपर है
उन्हें भी हो पता , जा करके उनसे कह देना
मेरा ये महल है दुनिया के लिए छप्पर है