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मुझे साक्षात्कार देना नहीं आता / वंदना गुप्ता

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मुझे साक्षात्कार देना नहीं आता
सच में क्या बताऊँ अपने बारे में
क्या आप नहीं जानते?
एक नारी हूँ
एक गृहणी हूँ
एक आदर्श पत्नी हूँ
एक माँ हूँ
एक बहन हूँ, बेटी हूँ
रिश्तों में सिमटी गाथा हूँ
बताओ तो ज़रा
इससे भिन्न मैं कहाँ हूँ?
क्या कभी देखा किसी ने मुझे
मेरे इस स्वरुप से इतर
या कभी खोजा मैंने खुद ही
अपने में अपना कोई दुर्लभ स्वरुप
बेशक अपनी सहूलियतों से
बना देते हो तुम मुझे
कभी दुर्गा तो कभी झाँसी की रानी
कभी काली तो कभी जीजाबाई
मगर सच बताना
क्या वास्तव में चाहते हो
तुम मुझे इस रूप में देखना
नहीं चाहते जानती हूँ
तुम्हें तो चाहिए वो ही
घर में इंतज़ार करती
बच्चों को खिलाती
बीवी और माँ
बेशक बदलाव की बयार में
तुम लिख देते हो कुछ इबारतें खामोश सी
जिसमे करते हो तुम
उसकी हौसला अफजाई
दिखाते हो राह
बताते हो
सितारों से आगे जहान और भी है
और आसमाँ छूने की चाह का
कर देते हो जागरण उसके अंतस में
मगर किस कीमत पर
ये भी तुम्हें पता होती है
तभी तो घर और बाहर के बीच पिसती
उसकी शख्सियत पर
लगा देते हो पहरे हवाओं के
उड़ने से पहले क़तर देते हो पंख
क्योंकि आदत है तुम्हारी
करती रहे ता -उम्र तुम्हारी कदमबोसी
ना चल सके एक भी कदम तुम्हारे बिना
कभी डरा कर तो कभी धमका कर
करते हो उसके हौसले पस्त
बना देते हो उसे अपने हाथ की कठपुतली
जो मंत्रमुग्ध सी तुम्हारी ऊंगली की डोर पर
नाचती रहती है इस गुमान में
कि वो है आज़ाद
कर रही है अपने मन का
भर रही है उड़ान आज़ाद परिंदे सी
मगर वास्तविक दुनिया के
काले राजहंसों के नकाबों से महरूम होती वो
नहीं जानती क्या है उसका वजूद
कैसे किस प्रलोभन ने उसे किया नेस्तनाबूद
और यदि ऐसे में कभी गलती से
किसी बुलंद ईमारत की कील बन जाती है वो
तो किया जाता है उसका साक्षात्कार
पूछा जाता है उससे
उसके जीवन के संघर्ष को
कैसे छुआ उसने ये मुकाम
और वो अभी जान भी नहीं पाई होती
ज़माने के दोरंगों को
और कर देती है आत्मसमर्पण
दे देती है क्रैडिट एक बार फिर तुम्हें
क्योंकि तुम्हारे चक्रव्यूह में फँसी होती है
नहीं जान पाती छलावे की दुनिया को
और एक अपने बारे में छोड़कर
बाकी सारे जहान का हाल सुना देती है
और हो जाता है उसका साक्षात्कार
बना देती है एक बार फिर वो इतिहास अनजाने में ही पुरुष के पुरुषोचित अहम् को तवज्जो देकर
बताओ तो ज़रा मैं कहाँ हूँ और कौन हूँ?
यदि मिल जाऊँ तो आ जाना लेने साक्षात्कार