भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुतफ़र्रिक अशआर / मेहर गेरा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
हवा चले न चले ये खुले ही रहते हैं
किसी की याद के पैकर हैं इन दरीचों में
खुले मकानों में रहने की आदतें छोड़ो
सिमट गये हैं यहां लोग तंग कमरों में।

तू मेरी तिश्नालबी को कोई सराब न दे
मुझे तो आज ही जीना है कल का ख़्वाब न दे
मुझे निकाल तू दरिया-ए-बेयक़ीनी से
जवाब कुछ भी हो लेकिन अब इज़तराब न दे।

कच्चे मकान रात का सैलाब ले गया
और उसपे ये सितम कि कई ख़्वाब ले गया।

क्यों एक ही के वक़्त की बारिश ने धो दिया
लिक्खे हैं नाम आज बजी दीवार पर बहुत
क्या जाने तूने सोच के क्या फैसला किया
अब साथ छोड़ दे कि क्या है सफ़र बहुत
क्या जाने हम ही कैसे बहाओ में आ गये
रफ्तारे-आब मेहर न थी इस क़दर बहुत।


जिसे भुलाने की कोशिश हज़ार की मैंने
अभी वो शख्स मेरे दिल की धड़कनों में है
उठा के ताक़ से उसमें न अपना चेहरा देख
वो एक आइना जो गर्द की तहों में है
कदम कदम पे जो देता है दुश्मनी का सुबूत
वो एक शख्स अभी मेरे दोस्तों में है।


गुलों के रंग में है वो, न खुशबुओं में है
वो शख्स सिर्फ मेरे दिल की धड़कनों में है
मैं ढूंढता हूँ हरिक गाम रास्ते सीधे
ये ज़िन्दगी तो मगर तंग दायरों में है।


बहाओ आज बहुत इसके पानियों में है
कोई तो अक्स नदी की रवानियों में है।

देखे ये किसलिए कि हवा साज़गार हो
जब ठान ली है हमने तो इज़्ने-सफ़र करें।