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मुनियाँ, मोती और जाड़े की कथा / दिनेश कुमार शुक्ल

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नहीं हुआ करती थी तब अपनी दुनिया में
आँख फोड़ती चकाचौंध यह शहरों वाली
रात पूस की तब जल्दी ही घिर आती थी
खेती-बाड़ी सौदा-सुलफ काम निबटा कर
दिन रहते ही लोग लौट आते घर वापस
सूरज ढलने के पहले ही चिड़िया-चुंगन
गाय-भैंसे घोड़ा-खच्चर
सब आ जाते अपने दर पर

कुछ विचित्र उम्मीदें भी आ जातीं जब-तब
कुछ तो उल्टे पाँव तुरत वापस हो लेती
लेकिन कुछ टिक ही जाती थीं वही गाँव में-
इनमें कुछ बेहद अजीब थीं
जैसे न्याय और आजादी की उम्मीदें
या उम्मीदों की उम्मीदें.......

बहरा मोती
ऊँघ-ऊँघ कर
देखा करता था
यह सारी आवाजाही-कारस्तानी
पूँछ हिला कर मन ही मन मुस्काया करता

इसी जगह तब एक नदी
आकर गंगाजी में मिलती थी
उसके पानी में तब पानी की सुगन्ध थी
उसकी धारा में तब बचपन की उछाल थी
जाजमऊ के टीले के भीतर क ईंटें
बीते वक्तों की गरिमा की याद दिलातीं
गरिमा के ऊँचे टीले पर बैठी मुनियाँ
बजा-बजा कर फूटी ढोलक
रोज सिखाती अपनी गड़िया को शादी का तुतला गाना

बहरा मोती ऊँघा करता
पर तफरीहन
सोते-सोते कभी भूँकने भी लगता था
तब शरमाई हुई दाढ़ियों से
तिनके झरने लगते थे-
अच्छे-खासों को भी मोती का लिहाज था

जैसे सबके वैसे मनियाँ के घर पर भी
तब छप्पर था
टँगी रहा करती छप्पर की थूनी में बाबा की पगड़ी
जैसी सबकी वैसी अपनी इज्जत ऊँची,
उस थूनी पर रगड़-रगड़ कर पीठ खुजाती बूढ़ी बकरी
अपने बच्चों की शैतानी पर मिमियाती करती गुस्सा
जाड़े के दिन हरे-भरे चारे के दिन थे
लेकिन इन्हीं दिनों खतरा भी बढ़ जाता था
इन्हीं दिनों भेड़िये खेत की घनी फसल में घुस आते थे,
बकरी रानी बड़ी सयानी पीती दूध पिलाती पानी....

भूनती आलू की खुशबू में जगती रातें
घर-घर में जगते अलाव सुलगती बोरसी
गन्ने के सूखे पत्तों की लपट धधक कर फट पड़ती थी,
मन के सोये पानी में भी लपट जगाती
थी जाड़ों की आग फूल की तरह सुकोमल

लोगों के संग किस्से भी घुसकर अलाव
तापा करते थे
कभी-कभी तो स्वयं रात ही आ जाती थी
दन्तकथा की फटी दरी पर बैठी दादी
अपने नइहर का वो किस्सा अक्सर कहतीं
जब गाँधी बाबा आये थे
कैसे सारा गाँव दूध नाँदी भर लेकर
गाँधी बाबा के दर्शन के लिए गया था
उस दिन से फिर जमींदार-साहूकारों पर
लगे थूकने लोग निडर हो खुल्लम-खुल्ला

चूँकि बीतने ही थे सो वो दिन भी बीते
ईंधन चुकता गया
कथाएँ झूठी निकलीं
लोग सयानी बकरी को खा गये पका कर
बुरे दिनों ने हँस कर खूब उछाली पगड़ी
तूफानों ने उड़ा दिये घर-घर के छप्पर
एक-एक कर पुरखे चले गए तारों में
केवल जलती रहीं चिताएँ
चूल्हे बुझते गये बोरसी कब की फूटी
बुझते गये अलाव सभी की आत्मा के भी
फैल रही थी नई प्रगति जलकुम्भी जैसी

गुड़ियों वाली मुनियाँ तो अब खुद दादी है
काँप रही है नई किसम की शीतलहर में-
गोदी में लेकर बसन्त को
नहीं सुनाती अब वह कोई कथा-कहानी
अब तो वह बस आँखिन की देखी कहती है-
कैसे सब बटमार बन गये सत्ताधारी
कितना बाहर कितना भीतर घुसकर तोड़ा मँहगाई ने
किसने इतना जहर हवा-पानी में घोला
ईंधन कैसे चुका, आग क्यों बुझी पड़ी है....
जाड़ा हड्डी को भीतर तक गला रहा है
सिर्फ धुएँ की ऊष्मा के थोड़े निशान हैं
दीवारों पर,
बुझी राख के बिस्तर पर सिकुड़ी सी बैठी
ठिठुर रही है आग हो गए बरसों सुलगे
भूल चुकी है आग कि वह जीवन देती है
वही जलाती है दुनिया का कूड़ा-करकट
बचपन वाली नदी बन गई गन्दानाला
गन्दानाला ठीक नाक के नीचे गंगा में गिरता है
गंगा भी पापों का कुम्भीपाक ढो रही.....

आसपास के गाँव हजम कर गया कानपुर
बहरे मोती के सोने की जगह खुल गया कोई दफ्तर
बहरा मोती तो अब रहता है तारों में
किन्तु वहीं से भूँका करता
इस दुनिया के सब चोरों पर
उस दुनिया में उसको बिल्कुल चैन नहीं है
नीचे इस दुनिया में उसका काम बढ़ गया

चोर समझते हैं मोती की भौं-भौं सुनकर
किसी नयी-टीवी चैनल पर शायद ईश्वर बोल रहा है
उन्हें अभय वरदान दे रहा दान-दक्षिणा के बदले में