भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुन्तशिर कोई किस्सा-ए-पारीना हो गया हूँ / कबीर शुक्ला
Kavita Kosh से
मुन्तशिर कोई किस्सा-ए-पारीना हो गया हूँ।
वफ़ाशेआ' र रुस्वा हरदमे-दैरीना हो गया हूँ।
मस्तानाँ हूबहू हुस्न-मरहूने-जोशे-बादे-नाज,
हर्फ़े-तमन्ना, ख़ुमारे-मए-दोशीना हो गया हूँ।
ख़्वाहिशे-निहाले-ख़लूश ले सहरा में भटका,
मैं दश्ते-ख़िजाँ या रंगते-नौशीना हो गया हूँ।
ग़म-ए-रोजगार, ग़मे-उल्फत दस्तो-गरेबाँ हैं,
रुख़्सते-फ़स्ले-गुल, ख़्वाबे-हीना हो गया हूँ।
सदलख़्ते-तमन्ना लिये मंजिल की जुस्तजू में,
हुज़ूमे-ग़ुबार में फँसा कोई सफ़ीना हो गया हूँ।