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मुफ़लिसी में दिन बिताते हैं यहाँ / मृदुला झा
Kavita Kosh से
फिर भी सपने हम सजाते हैं यहाँ।
मज़हबी बातें उठाकर लोग कुछ,
आपसी झगड़ें बढ़ाते हैं यहाँ।
दूसरों के ग़म को हैं कम आँकते,
अपने गम में छटपटाते हैं यहाँ।
झूठी बातों का ढिंढोरा पीट कर,
सच से कैसे मुँहे छुपाते हैं यहाँ।
ज़िन्दगी भर साथ रह कर भी अलग,
इस तरह से भी निभाते हैं यहाँ।
अपना कैसा हाल है जाने नहीं,
लोग सब पर मुस्कराते है यहाँ।