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मुरझा कर भी / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

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मुरझा कर भी खिला रहेगा
यह गुलाब का फूल,
विदा की वेला का यह फूल!

इसमें डले तुम्हारे आँसू,
ऊषा के रतनारे आँसू,
सूखे पात याद करते हैं
भीगा हुआ दुकूल!
विदा की वेला का यह फूल!

गन्ध बस गई श्वासों में,
रंग दृगों के आवासों में,
लगा इसे अधरों से, सारी-
दुनिया जाता भूल!
विदा की वेला का यह फूल!

निशि-दिन एक सुरभि सा डोलूँ,
नन्दन-वन की भाषा बोलूँ,
अगर चढ़ी तो साथ चढ़ेगी
हम दोनों पर धूल!
विदा की वेला का यह फूल!