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मेरा आगाज़ टलता जा रहा है / ध्रुव गुप्त
Kavita Kosh से
मेरा आगाज़ टलता जा रहा है
समय कैसा निकलता जा रहा है
तू कैसा आईना लेकर खड़ा है
मेरा चेहरा बदलता जा रहा है
अजब है चांद से रिश्ता हमारा
हमें बचपन से छलता जा रहा है
अभी ये ख़्वाब जो मरते बचा था
तेरी जानिब टहलता जा रहा है
किसे दरकार है तेरी मेरे दिल
कहां गिरता-संभलता जा रहा है