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मेरा महबूब मेरा हमदम चाँद के हूबहू है / कबीर शुक्ला

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मेरा महबूब मेरा हमदम चाँद के हू-ब-हू है।
ऐसा लगता है कोई परीवश मेरे रू-ब-रू है।
 
गो वह सिर्फ़ मेरा है कोई नक़दे-शमसो-क़मर,
वो तजल्ली-सा मिस्ले-सबा-सा कू-ब-कू है।
 
वो है खुसरवे-शीरीदहनाँ वह गुलो-गुलबदन,
जिस्मे-नाजनीं में गुले-गुलिस्ताँ की खुशबू है।
 
वो गुलबदन है चारागर दवा दुआ-ओ-मरहम,
वो मसीहा-ए-दिले-दिलजदहाँ-सा मू-ब-मू है।
 
वो ही मए वह ही है लग्जिशो-नहकते-मस्ताना,
वो ही है बादिया-ए-आबे-हयात जामो-सुबू है।
 
वो रानाई-ए-महताब है मीरे-कारवाँ-ए-इश्क,
वो मेरा हबीब है वह ही महरम वह ही अदू है।
 
निगाहे-मुंतजिर भी दीद-उमीद में है मुजतरिब,
दीद-ए-अक्से-रुखे-यार ख़्वाहिशो-जुस्तजू है।