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मेरी यादों में ढल रही थी धूप / देवेन्द्र आर्य

मेरी यादों में ढल रही थी धूप।

गिर रही थी सम्हल रही थी धूप।


मैं था गुड़ की तरह पसीजा हुआ

और नमक सी पिघल रही थी धूप।


मां ने बेटी को गौर से देखा

अपने कद से निकल रही थी धूप।


हाथ कम खुरदुरे न थे मेरे

फिर भी इनसे फिसल रही थी धूप।


ढंक के कोहरे से चाँद भी खिड़की

अपने कपड़े बदल रही थी धूप।


तीरगी के घने दरख्तों की

छांव में फूल फल रही थी धूप।


कुछ बहुत व्यक्तिगत सी बातें थीं

यूँ ही थोड़े न खल रही थी धूप।