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मेरे अश्कों का राज़ बूझो भी / डी. एम. मिश्र

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मेरे अश्कों का राज़ बूझो भी
ग़म में क्यों हँस रहा हूँ सोचो भी

तुमको आईना भी दिख जायेगा
इक नज़र मेरी तरफ़ देखो भी

तुम मुझे मानते हो गर अपना
दो क़दम साथ मेरे आओ भी

उसके माथे पे खिंची है रेखा
किंतु उसका गुरूर तोड़ो भी

अपने दुश्मन से दूरियां रक्खो
दर्द में देखकर पसीजो भी

बाद में होगे मुसलमां, हिंदू
पहले इन्सां हो याद रक्खो भी