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मेरे आँसू कागज़ पर थक जाते चलते-चलते / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
मेरे आँसू कागज़ पर थक जाते चलते-चलते
वो आँसू कैसे होंगे जो अंगारों पर बहते।
इश्क मुहब्बत हुस्न रूप की बातें करते-करते
कब हम लगे चीखने यारो ग़ज़लें कहते-कहते।
कैसा ये आईना है कैसी इसमें तस्वीरें
पत्थर पेट पे बाँध के बूढ़े रिक्शा खींचा करते।
बादल की मीठी बूँदेा से कोई फ़र्क़ न पड़ता
सारा सिंधु हुआ है खारा आँसू गिरते- गिरते।
एक जुलाहे को जब देखा फटे हुए कपड़े में
सारे सपने चूर हो गये रेशम बुनते - बुनते।