मेरे गर्दन गिलोटिन पर टिकी है / मुकेश निर्विकार
जानवर खा रहे हैं जानवरों को
निगल रहे हैं पंछी
कीड़े-मकोड़े,
पतिंगे की तृणभर जान भी फंसी हैं
सज्जन-सी दिखती
छिपकली के मुँह में,
कसाई की दुकान पर
फड़फड़ा रहा है
अधकटा मुर्गा
ललचा रही हैं उस पर
ग्राहक की आँखें!
यह परिदृश्य सिर्फ आज भर का नहीं है
बल्कि, चला आ रहा है सनातन
सृष्टि के प्रारम्भ से-
‘जीवो जीवस्य भोजनम्’
इतिहास का हर बरक भी रंगा हुआ है
लहू की लाल स्याही से
मैं शांति के श्वेत-पत्रों को लिए
जी आया हूँ
सारे युग!
लेकिन/फिर-फिर
रक्तरंजीत परिवेश में लौटा हूँ।
इस सृष्टि में क्यों बुनी है तुमने
हिंसा व जीव-हत्या हर ओर?
क्या अहिंसा पर टिकी
कोई दुनियाँ नहीं बन पाई तुमसे
हे जगत्-नियंता!
मैं नाउम्मींदा/होना नहीं चाहता हूँ
यद्यपी
मेरी गर्दन गिलोटिन पर टिकी है!