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मेरे नालों में इतना तो असर है / 'मुमताज़' मीरज़ा
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मेरे नालों में इतना तो असर है
शब ए ग़म है मगर कुछ मुख़्तसर है
उम्मीदें लाए थे ग़म ले के उठे
ये रूदाद-ए-हयात-ए-मुख़्तसर है
नहीं है दूर कुछ मंज़िल हमारी
ज़माना राह में हाएल मगर है
असीरों को रिहाई मिल तो जाए
मगर शर्त-ए-शिकस्त-ए-बाल-ओ-पर है
वो राहें जिन को सूना कर गए वो
उन्हीं पर आज तक मेरी नज़र है
जहाँ तुम हो वहाँ है लाला ओ गुल
जहाँ हम है वहाँ बर्क़ ओ शरर है
बदल डाला है जिसे ने मेरा आलम
किसी ने इक निगाह-ए-मुख़्तसर है
इलाही ख़ैर मेरे आशियाँ की
सबा के साथ फिर मौज-ए-शरर है
माह ओ ख़ुर्शीद को समझा है मंज़िल
ख़ुदाया किस क़दर आजिज़ बशर है