(राग भूपाली-ताल त्रिताल)
मेरे प्रभु हैं कितने सहज सुहृद, हैं कितने परम उदार।
कितने वे वदान्य हैं, भृत्याधीन, अमित करुणा-आगार॥
दीन उन्हें? या दे सकता है, अपना ‘दैन्य’ छोडक़र और।
‘सर्बार्पण’ वे मान उसे, देते हैं निज उछन्गमें ठौर॥
हो जाते कृतज्ञ हैं, उसके नहीं देखते कुञ्छ गुण-दोष।
भूल पूर्वके सब पापोंको, हृदय लगा, देते संतोष॥
कर लेते विशुद्ध वे उसको तुरत बना लेते निज यन्त्र।
खूब कराते उससे निज प्रिय कार्य फूँककर नव-नव मन्त्र॥