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मेरे महबूब मुझ को जिंदगी देने चला भी आ / रंजना वर्मा

मेरे महबूब मुझ को जिंदगी देने चला भी आ
हैं ये तारीक रातें रौशनी देने चला भी आ

बड़ी है तिश्नगी दिल में जुनूँ छाया है ये कैसा
तू प्यासी रूह को थोड़ी खुशी देने चला भी आ

ग़मों की पीर रग रग में हुए सब ख्वाब भी बासी
उमीदों को जरा सी ताज़गी देने चला भी आ

बहुत है धुन्ध आँखों में दिखाई ही नहीं देता
नज़र को प्यार की फिर चाँदनी देने चला भी आ

किया है जुल्म ये कैसा कि हम से दूर जा बैठा
मुहब्बत की वही दीवानगी देने चला भी आ

बड़ी लगजिश है पाँवों में पकड़ के हाथ तू मेरा
जहां को इश्क़ की ये बानगी देने चला भी आ

हुई है जिंदगी की बांसुरी भी बेसुरी जैसे
इसे फिर से मधुर धुन रागिनी देने चला भी आ