मेरे हे जीवन-जीवन / हनुमानप्रसाद पोद्दार
मेरे हे जीवन-जीवन! मेरे हे जीवनके रस!
मेरे हे भीतर-बाहर! मेरे हे केवल सरबस!
मैं नहीं जानती कुछ भी अतिरिक्त तुहारे प्रियतम!
मैं नहीं मानती कुछ भी बस, तुहें छोडक़र प्रियतम!
हर सभी पृथकता, मेरे रह गये एक तुम-ही-तुम।
कर आत्मसात् ’मैं-मेरा’ सब कुछ अपनेमें ही तुम॥
अब तुहीं सोचते-करते सब ’मैं’ ’मेरा’ मुझमें बन।
नित तुहीं खेलते रहते बन मेरे चिा-बुद्धि-मन॥
आनन्द मुझे तुम देते नित बने पृथक् लीलामय!
अपनेमें अपनेसे ही तुम होते प्रकट कभी लय॥
नित मिलन बिरहकी लीला चलती यों सतत अपरिमित।
होते सब खेल अनोखे नित सुख-वाछासे विरहित॥
मैं कहूँ अलग क्या प्रियतम! कहते हो तुम ही सब कुछ।
सुनते भी तुम ही हो सब, तुम ही हो, मैं हूँ जो कुछ॥
बैठी निकुजमें आली! थी ध्यानमग्र सब कुछ तज।
एकान्त हृदय-मन्दिरमें यों थी मैं रही उन्हें भज॥
मेरे मनकी ये बातें सुनकर वे प्यारे मोहन।
हो गये प्रकट यमुना-तटकी उस निकुजमें सोहन॥
उरसे अन्तर्हित सहसा हो गये प्राण जीवनधन।
व्याकुलता उदय हुई अति, खुल गये नेत्र बस, तत्क्षण॥
वे देख रहे थे मुझको रसभरे दृगोंसे अपलक।
मिलनेकी उठी हृदयमें अत्यन्त तीव्रतम सु-ललक॥
बस, मुझे लगा ली उरसे निज स्वयं भुजाओंमें भर।
रसभरे दृगोंसे आँसू बह चले प्रेमके झर-झर॥