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मेला / शरद कोकास
Kavita Kosh से
एक
कोई बच्चा नहीं भटका मेले में
कोई धूल में नहीं लिपटा
कोई नहीं भागा छुड़ाकर हाथ
सबके सब
लौट गए घर
रात से पहले
सो गए माँ की गोद में
प्यार भटकता रहा बस
दुनिया के मेले में।
दो
मेले की भीड़
सचमुच की भीड़ होती है
ढूँढ़ती है अपनी खुशियाँ
अपनी अपनी दुकानों में
अपनी उमंगे अपना उल्लास ढूँढ़ती है
मेले की भीड़
पूरी ताक़त के सथ सिद्ध करती है
दुनिया में खुशी की अहमियत।
तीन
मेले में
यार मिले रिश्तेदार मिले
समय खत्म होते ही
लौट गए
किसी ने नहीं टटोले तुम्हारे जख़्म
किसी ने याद नहीं किया
किसी ने नहीं देखा
वीरानी पर
किस तरह पसरती है ऊब।
चार
अकेलेपन पर
तरस खाकर
ज़िन्दगी ने सौंप दी है
उस पर ज़िम्मेदारी
मेला लगाने की।
-1995