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मेहनतरानियाँ / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

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वे अलसुबह लम्बी डांग-सी
झुण्ड में
घरों से पैदल निकलती हैं
ज़ोर-ज़ोर से सुख दु:ख बतियाती और हँसती हैं
इस विश्वास के साथ
कि आज शहर का सारा कूड़ा कचरा
सारी गन्दगी बुहार कर साफ कर देंगीं
हाथों में थामे लम्बी बुहारियों से

वे सूरज के साथ उठती हैं
उसकी रोशनी के साथ फैल जाती हैं चौतरफ
सड़कों गलियों चौराहों पर
तब झाड़ू से उडऩे लगती है धूल
जलने लगता है कचरा
धुएँ और धूल का गुब्बार
जब हमारे घरों की तरफ आता है
हम कर लेते हैं बंद दरवाज़े-खिड़कियाँ
पर वे अपनी आँखें खुली रखती हैं
जब तक माटी का गुब्बार शांत होकर बैठ नहीं जाता
वे नहीं बैठतीं
सर्दियों में सड़क किनारे कहीं भी
आग तापती हैं
तब उनके चेहरों पर श्रम की लाली चमकती है
गर्मियों में किसी पेड़ की छाया-तले बैठकर सुस्ताती हैं कुछ पल
किसी भी घर से पानी मांगकर पी लेती हैं
खाने को मिल गया तो खा भी लेती हैं

आशीष देती हैं झोली भर
और फिर सूरज से लोहा लेते हुए
अपने-अपने घरों को चल देती हैं
कल फिर आने के लिए सूरज के साथ
मेहनतरानियाँ