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मैं एक जस्त में क़ैद-ए-अना से बाहर था / 'शहपर' रसूल
Kavita Kosh से
मैं एक जस्त में क़ैद-ए-अना से बाहर था
फिर उस के बाद बहुत दूर तक समंदर था
ये किस हुनर से लिखी सरगुज़िश्त-ए-जाँ उस ने
वरक़ तो ख़ुश्क था सारा ही हाशिया तर था
जो सोचता हूँ तो इक धूंद से गुज़रता हूँ
वहाँ पे कोई गली थी वहाँ कोई घर था
इक आँख ख़्वाब में इक वाक़िए में रहती थी
हद-ए-निगाह तलक झुटपुटे काम मंज़र था
उसे भुलाने में इक सानिया लगा है मुझे
वही जो लफ़्ज मिरे दोस्तों का अज़बर था
नज़र मिली तो हँसे फिर मिले मिले न मिले
किसी से अपना तअल्लुक़ बस इक नज़र भर था
इसी ख़ला को मगर देखते हैं सब ‘शहपर’
ये कौन जाने कि दिल था यहाँ कि पत्थर था