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मैं एक फटा हुआ पोस्टर / वानिरा गिरि / सुमन पोखरेल

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हे मानव!
फटे हुए वाक्यों के टुकड़ों के
बार-बार अलग-अलग अर्थ मत लगाओ
मैं अपनी ही कहानी भूल चुकी हूँ।

अंगीठी के पास से
जाड़े की छुट्टी के ढेंकी पर
एक बूढ़ा
पोते-पोतियों को लोककथा सुनाता है।
पारोहाङ और लेम्पुहाङ उतरते हैं
बूढ़े की आंखों में जैसे वह खुद
एक शिव हो एक युग का
और सतीदेवी को उसने खो चुका है
दक्ष के यज्ञ में।

वह कहानी सुनाता है —
लाल-हीरा की
और खुद ही भगा लेता है लाल को
सदियों पुराने सफेद घोड़े पर,
जिनके टापें समय के कानों को
अभी भी हुक्म कर रहे हैं
ओह! कितना लाचार
वे लोग/हम लोग
कहानी सुनाने वाला यह बूढ़ा आदमी!
वह कहाँ काट पा रहा है
समय की खींचाव और समय के हुकुम को?
वह कहाँ तोड़ पा रहा है
समय की लापरवाही और समय के धोके को?
मोज़ेस कैसे समुद्र को काट पाया
मोज़ेस कैसे समुद्र को तोड़ पाया?

हाँ, यहाँ बहस करूंगी—
आस्था और अविश्वास की
विश्वास और अविश्वास की
मेरे सत्य और मेरी आस्थाएँ
लीलाम हो चुकी हैं
हरिश्चन्द्र घाट पर
मेरा विश्वास भी अब तो
भटकते हुए चलने लगा है
लावारिस कुत्ते की तरह
गलियों के कचरे का ढेर में।

शाप लगेगा मुझे
इस गर्भाशय और इन फूलों का,
जो काम न आ पाने के कारण फेंके गए हैं
टूटे हुए बर्तनों की तरह
जो काम न आ पाने के कारण सूखे हुए हैं
रसविहीन दाख़ की तरह
शताब्दियों बाद
मैं खड़ी हो हो जाऊँगी समय के टिले पर
एक लोककथा बनकर,
चोटों के गहरे छापों को सहलाते सहलाते
मेरा समय
खड्डे-गड्डे में बदल चुका होगा।

मरुभूमि के सीने पर
मिट जाने के लिए ही
हमारे पगचिह्न छपे हुए हैं
च्व... च्व...
हिमालय की ठंडी हवा, यह तो शराब का खुमार
सुबह में यह एक पीड़ा छोड़कर जाती है
विश्वास, सपना, निश्चिन्ता और अधिकार का
गर्भपात कर के
हल्का बन जाती है।

हम लाशों के ऊपर बेखौफ चलते रहे हैं
पृथ्वी भी लाशों का एक मजार है
हम मजार पर घर बनाते हैं
हम मजार पर भोज खाते हैं
हम मजार पर जीते हैं
हम हुक्म देते हैं
अपनी ही लाश को मजार के अंदर से ।

जनक राजा के दरबार की शिव धनुष के साथ
अब स्वयंवर पूरा हो चुका है,
आजकल लवकुश
टुकुचा के गंदे पानी में बहने लगे हैं
मानव की आस्था को थमे रहने के लिए कोई जगह चाहिए होता है
विश्राम करने के लिए एक चबुतरा चाहिए होता है
जीने के लिए भी एक मोह चाहिए होता है — मृत्यु का
सौ साल से अधिक जीवन
ओह!
कल्पना मात्र भी पागल बना देने वाला एक रोग होता है ।

ज़िंदगी
यह कोई व्याख्या नहीं है महाकाव्य की
भूमिका नहीं है आत्मकथा की
संस्करण नहीं है अपने कृतियों की
मैं चूल्हे के छेद से
एक ज़िंदगी को फूंक देती हूँ
और बर्तन के चावल को चिढ़क देती हूँ
मैं आइने की सतह पर
एक ज़िंदगी की सांस चला देती हूँ,
और अपने चेहरे को धुंधला देख लेती हूँ
मैं एक फटा हुआ पोस्टर
समय की दीवार पर।

हे मानव!
फटे हुए वाक्यों के टुकड़ों के
बार-बार अलग-अलग अर्थ मत लगाओ
मैं अपनी ही कहानी भूल चुकी हूँ।