मैं ऐसा दानी हूँ / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’
मैं ऐसा दानी हूँ, जिस पर देने को केवल परिचय है!
मैं संयम के काराग्रह से भागा हुआ एक बन्दी हूँ,
और दूसरी ओर काम का जाना-माना प्रतिद्वंदी हूँ;
मुझको प्यार शरण दे बैठा मन की जाने किस उलझन में,
बीत रहे दिन रूपमहल के इस गुलशन में, उस गुलशन में;
यह जग राजकुँवर कहता है,
पर जीवन उल्टा बहता है,
कठिन भूमिका मुझे मिली है, किन्तु सफल मेरा अभिनय है!
एक चोट थी, जो दर्पण को घर से निष्कासित कर बैठी,
एक चोट दरके दर्पण से आनन उदभाषित कर बैठी;
क़ीमत घटती-बढ़ती रहती रंक या कि सम्राट सभी की,
लेकिन मैं हूँ, कीमत जिसकी निर्धारित हो चुकी कभी की;
मेरा भी परिवार बड़ा था,
सत्ता का थोड़ा झगड़ा था,
राज़ी और ख़ुशी से मुझको बटवारे में मिला ह्रदय है!
दुर्दिन ने वह चाल चली है, साँप मरे औ’ लकुटी न टूटे,
जो मुझ बिन आकुल रहते थे, एक-एक कर साथी छूटे;
सात समुन्दर पार किये हैं, पर ओझल है अभी किनारा,
एक और सागर बन बैठा प्राणवान सन्तरण बिचारा;
अथ-इति के सुनसान भवन में,
आँधी-पानी वाले क्षण में,
देख रहा हूँ, साहस मेरा कमसिन होकर भी निर्भय है!