मैं छोड़, प्रिये! तुमको, मथुरा में आया / हनुमानप्रसाद पोद्दार
मैं छोड़, प्रिये ! तुमको, मथुरामें आया।
तुमपर दुख अति घनघोर घटा बन छाया॥
तुम प्रतिपल मन-ही-मन हो अविरत रोती।
मिथ्या ही खाती, मिथ्या निद्रा सोती॥
तुम एक पलक भी नहीं चैन चित पाती।
अंदर-ही-अंदर घुलती नित बिलखाती॥
भीतर जो भीषण अग्रि तुहारे जलती।
वह बिना जलाये नहीं किसीसे टलती॥
छू जाय किसीकी वृाि भूलसे जाकर।
जल जाती वह भी ताप भयानक पाकर॥
तुम पीड़ा अन्तरकी न किसीसे कहती।
ऊपरसे हँसती-सी दुख दारुण सहती॥
मैं जान गया यह दुःख तुहारा, प्यारी !
है भडक़ उठी इससे उर ज्वाला भारी॥
था पहलेसे ही अति वियोग-दुख दुस्सह।
अब दोनोंने मिलकर धर दी तह-पर-तह॥
मेरी क्या दशा तुहें, प्यारी ! बतलाऊँ।
कैसे भीषण संताप तुहें दिखलाऊँ॥
बढ़ रही सुदारुण पल-पल उरकी ज्वाला।
है पहनी जलते अंगारों की माला॥
कैसे तुमको धीरज दूँ मैं समझाऊँ।
जब अपनेको ही नित्य धधकता पाऊँ॥
पर उस दिन मैंने देखी बात अनोखी।
तुम बैठी मेरे पास उल्लसित चोखी॥
हँस बोली-’प्यारे ! क्योंउदास तुम होते ?
तुम तो नित मेरे साथ जागते-सोते॥
दिन-रात कदापि न होते मुझसे न्यारे।
करते तुम आठों याम काम सँग सारे॥
मैं रहती तुमको नित्य किये आलिंगन।
तुम कभी न होते विलग पलक, जीवनधन !
रोती मैं बाहर, हूँ अंदर नित हँसती।
मेरी बढ़ती रहती शुचि रसकी मस्ती॥
प्रिय ! दृष्टि लौकिकी में तुम भले न आओ।
पर रहो नित्य ही पास, न पलभर जाओ॥
बिलसो ऐसे ही नित्य, मुझे बिलसाओ।
तुम हँसो, प्राणधन ! मुझको सदा हँसाओ॥
हो कभी न पलक-वियोग तुहारा-मेरा।
दोनोंका गोपन रहे एक ही डेरा’॥
हँस उठा हृदय, यों सुनकर प्यारी वाणी।
हँस उठे सभी, मुरझाये थे जो प्राणी॥
तबसे तुम मेरे पास सदा ही रहती।
मीठा ही करती, सब मीठा ही कहती॥
विष-रहित हुआ दोनोंका सुखमय जीवन।
नित खिले रहेंगे अब तो अपने तन-मन॥
हम दोनों हैं नित एक, वियोग न सभव।
है, हुआ, न होगा, कभी विलग प्रेमार्णव॥
है लीला यह संयोग-वियोग दिखाती।
ये प्रेमोदधिमें रस-लहरें लहराती॥