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मैं नियति हूँ मुझे यों न छेड़ो अरे! / आनन्द बल्लभ 'अमिय'

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मैं नियति हूँ मुझे यों न छेड़ो अरे!
क्रोध आया अगर नष्ट कर दूँ सभी।
प्रेम जो तुम करोगे हृदय खोल कर,
दोगुना प्यार दे कोष भर दूँ सभी।

डूबकर आधुनिकता में खोये हुए,
काट डाले बगीचे के सारे शजर।
वायु में चिमनियों से धुआँ छोड़ फिर,
मार डाले पखेरू छुपाके नजर।
और क्या-क्या किया मूढ़ता ने तेरी,
पातियाँ खोल आँगन में धर दूँ सभी।

पंछियों, जंतुओं, तरुवरों संग में,
कितनी खुशियाँ बटोरी बताऊँ तुम्हें।
माँ बुलाके मुझे, खेलते कूदते,
फिर लगाते शिकायत जताऊँ तुम्हें।
नेह संतान का पाके मन कह रहा,
ले बलाएँ सकल, पीर हर दूँ सभी।

मार डाले सभी जंगली जीव, अरु,
वन, नदी, पर्वतों का विदोहन किया।
प्रेम से मैं तुझे माफ करती गयी,
किन्तु तूने निरन्तर ही रोधन दिया।
एक अणु को दिया मात्र संकेत तब,
सोच ले दुर्दशा निज, अगर दूँ सभी।