भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं हूँ मुश्किल में, याद करते ही / पवन कुमार
Kavita Kosh से
मैं हूँ मुश्किल में, याद करते ही
दोस्त बदले हैं दिन बदलते ही
हर कदम पर थी किस कदर फिसलन
गिर गया मैं जरा संभलते ही
फिर नए जख्म दे गया ज़ालिम
कुछ पुराने से घाव सिलते ही
कोरों-कोरों में कांच चुभते हैं
ख़्वाब टूटे हैं आँख खुलते ही
है अजब सल्तनत भी सूरज की
रात बिखरी है दिन संवरते ही
पानियों का जुलूस देखा था
सख़्त चट्टान के दरकते ही
वस्ल में वक्त ऐसे कटता है
शब गुज़र जाए पल झपकते ही
वस्ल = मिलन, शब = रात्रि