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मैं / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
मैं वह इक पेड़ हूं
जंगल में कहीं अंखुवाया, फूटा
मैं वह इक पेड़ हूं
जिसे शहर ने पानी डाला
बढ़ता ही रहा टूटा, टूटा
मैं वह इक पेड़ हूं
जिसे खाद मिली जैसे-तैसे
माली भी रहा करता
कभी कतरन
रहा भरता कभी धड़कन
हवा जो भी मिली
सब जैसी मिली
फिर फूल खिले
छाया भी रही
मजबूरी-सी
क्या वजह हुई
पेड़ फलदार न हुआ
मैं वह इक पेड़ हूं
जो आज तलक
नहीं हुआ फलदार।