भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मोम-गाछ / देवेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब जब शाम ढले
एक अदासी
भीतर-बाहर
मोम-गाछ पिघले

वादे-वादे
पन्ने सादे
सिर आँखों
ग़ुमनाम इरादे
ख़ुशनसीब तस्वीर बाद में
हम लकीर पहले

दिन की छत
रातों के मलबे
टूट रहे हैं
रवे दर रवे

आते-जाते
राह बटाते
तुमसे
पेड़ भले
मोम-गाछ पिघले