भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मौत बेचे दिन महीना आजकल / ईश्वर करुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मौत बेचे दिन-महीना आजकल
हो गया मुश्किल है जीना आजकल

धन उगाही हो रही पिश्तौल से
व्यर्थ इंसाँ का पसीना आजकल

रहबरी आतंक की है मातहत
लाज को है घोल पीना आजकल

दोस्ती और दुश्मनी में फर्क था
अब तो ये रिश्ता भी झीना आजकल

चील थी बदनाम ‘ईश्वर’ कल तलक
उसका हक हमने है छीना आजकल