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यहाँ से दर्द का ख़ामोश समन्दर ले जा / अज़ीज़ आज़ाद

यहाँ से दर्द का ख़ामोश समन्दर ले जा
कुछ नहीं है तो फ़क़त याद के पत्थर ले जा

प्यार बन-बन के बरसती है लिपट जाती है
ये वो मिट्टी है इसे जिस्म पे मल कर ले जा

फूल तपते हुए सहरा में भी खिल जाते हैं
अपनी आँखों में छुपा कर यही मंज़र ले जा

सर छुपाने की जगह तुझको मिले या न मिले
चाहे पैबन्द सही घर से ये चादर ले जा

ऐसे मौसम में परिन्दे तो न आएँगे ‘अज़ीज़’
पिछले मौसम के बचे पर ही उठा कर ले जा