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यह चाँद आज पीला क्यों है? / रामगोपाल 'रुद्र'

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चाँदी के सिक्के-सा चमचम उस रोज़ यही तो दिखता था,
जो किरण-करों से धरती के आँचल पर कविता लिखता था;
उस दिन तो दूध बरसता था,
पूनों का चन्‍दा हँसता था,
पर आज वही अपने में यों खोया-सा, गीला क्यों है?

हम तो दुनिया के वासी हैं, दुनिया-भर की फरियाद लिये;
हँसते हैं दुनिया की खातिर, घुलते रहते कुछ याद लिये;
ऐसी अपनी लाचारी है,
जीती बाजी भी हारी ह;
लेकिन यह चाँद, इसे क्या दुख? फिर इसका दिल नीला क्यों है?

यह तो हम दुनियावाले हैं, क़िस्मत पर रोते चलते हैं,
जलते हैं और जलाते हैं, छल-छलकर ख़ुद को छलते हैं;
है ज़हर हमारे प्राणों में,
विष की बोली के बाणों में,
पर आज सुधा का राजा भी सूरत से जहरीला क्यों है?