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यादें जो अब शेष हैं / एम० के० मधु

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तुम्हारी यादें
ड्राइंग रूम के कोने में
एक लकड़ी फ़्रेम में जड़ गई हैं
अलबम की जिल्द में
मढ़ गई हैं

जब भी अकेला होता हूं
फ़्रेम में दर्ज तुम्हारी आंखें
मुझमें
डूबती, उतराती
नज़र आती हैं

अब जब
सांझ की दहलीज तक
पहुंचने को हूं मैं
तुम्हारे होने और न होने का अर्थ
धीरे-धीरे
मुझमें आने लगा है
धुंधली पड़ती मेरी आंखें
अतीत की धुंध में
तुम्हारे वजूद को
तलाशने लगी हैं
जिसे कभी
मेरी दोपहर की आंच ने
अपने दंभ में
गला दिया था

उस गले
और फ़र्श पर फैले
छितराये
तुम्हारे वजूद के विस्तार को
चिथड़े बने
वर्तमान की पोछन से
समेटने की
अथक कोशिश कर रहा हूं मैं

काश!
उस वक्त
तुम्हारा अर्थ समझ पाता
काश!
इस वक्त
यह पोछन कामयाब होती।