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यार था दरबार था बज़्म-ए-अता थी मैं न था / अनीस अंसारी
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यार था दरबार था बज़्म-ए-अता थी मैं न था
लायक़े फ़ैजान क्या ख़ल्क़-ए-ख़ुदा थी मैं न था?
मैंने पूछा क्या हुये वह आपके क़ौल-ओ-क़रार
हंस के बोले वह मेरी तर्ज़-ए-जफ़ा थी मैं न था
आपकी चश्म-ए-करम में देखता था मैं मक़ाम
जिसको आंखों पर बिठाया वह अना थी मैं न था
क्या सिला वाजिब न था मेरी वफ़ा का जीनहार
लायक़-ए-ताजीर ख़ल्क़-ए-बेवफ़ा थी मैं न था?
बहर-ए-गिरिया में नहीं चलते उमीदों के जहाज़
मौज में क़ज़्ज़ाक़-ए-जां उल्टी हवा थी मैं न था