भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

याहू, चाहे मुझे कोई जंगली कहे / शैलेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

याहू !
चाहे कोई मुझे जंगली कहे
कहने दो जी कहता रहे
हम प्यार के तूफ़ानों में घिरे हैं
हम क्या करें
याहू !

मेरे सीने में भी दिल है, हैं मेरे भी कुछ अरमान
मुझे पत्थर तो न समझो, मैं हूँ आख़िर एक इनसान
राह मेरी वही, जिसपे दुनिया चली
चाहे कोई मुझे …

एक मुद्दत से ये तूफ़ाँ मेरे सीने में थे बेचैन
क्या छुपाऊँ, क्या छुपा है, जब मिलते हैं नैन से नैन
सब्र कैसे करूँ, क्यूँ किसी से डरूँ
चाहे कोई मुझे …

सर्द आहें कह रही हैं, है ये कैसी बला की आग
सोते-सोते ज़िन्दगानी घबरा के उठी है जाग
मैं यहाँ से वहाँ, जैसे ये आसमाँ
चाहे कोई मुझे …

1961