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युग-युग को पार कर आया आषाढ़ आज मन में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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बहु युगेर ओ पार हते आषाढ़ एल आमार मने,
कोन् से कबिर छंद बाजे झरो झरो बरिषने ।
युग-युग को पार कर आया आषाढ़ आज मन में,
बजता है किस कवि का छंद आज घन में ।।
धूल हुई मालाएँ जो थीं मिलन की,
गंध बही आती है उनकी पवन में ।।
रेवा के तीर छटा ऐसी थी उस दिन
शिखरों पर श्यामल थी वर्षा ही पल-छिन ।।
पथ को थी हेर रही मालविका क्षण-क्षण
बह आई मेघों के साथ वही चितवन ।।
मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
('गीत पंचशती' में 'प्रकृति' के अन्तर्गत 41 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)