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यूँ तो चाहे यहाँ साहब-ए-महफ़िल हो जाए / बेहज़ाद लखनवी

यूँ तो चाहे यहाँ साहब-ए-महफ़िल हो जाए
बज़्म उस शख़्स की है तू जिसे हासिल हो जाए

नाख़ुदा ऐ मिरी कश्ती के चलाने वाले
लुत्फ़ तो जब है कि हर मौज ही साहिल हो जाए

इस लिए चल के हर इक गाम पे रूक जाता हूँ
ताना बे-कैफ़ ग़म-ए-दूरी-ए-मंज़िल हो जाए

तुझ को अपनी ही क़सम ये तो बता दे मुझ को
क्या ये मुमकिन है कभी तू मुझे हासिल हो जाए

हाए उस वक़्त दिल-ए-ज़ार का आलम क्या हो
गर मोहब्बत ही मोहब्बत के मुक़ाबिल हो जाए

फीका फीका है मिरी बज़्म-ए-मोहब्बत का चराग़
तुम जो आ जाओ तो कुछ रौनक़-ए-महफ़िल हो जाए

तेरी नज़रें जो ज़रा मुझ पे करम फ़रमाएँ
तेरी नज़रांे की क़सम फिर यही दिल दिल हो जाए

होश उस के हैं ये जाम उस का तू है उस का
मय-कदे में तिरे जो शख़्स भी ग़ाफ़िल हो जाए

फ़ित्नागर शौक़ से ‘बहज़ाद’ को कर दे पामाल
इस से तस्कनी-ए-दिल गर तुझे हासिल हो जाए