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ये कसक दिल में रह-रह के उठती रही / पवन कुमार
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ये कसक दिल में रह-रह के उठती रही
ज़िंदगी इस तरह क्यूँ भटकती रही
बन गई गुल कभी और ख़ुश्बू कभी
और कभी जिस्म बनकर सुलगती रही
एक रिश्ता यही उससे मेरा रहा
मैं चला शह्र को वो सिसकती रही
वो दिखायी न देगी, ख़बर थी मगर
क्यूँ नज़र उस दरीचे को तकती रही
ये मेरे इश्क की थी गवाही ‘पवन’
उसके हाथों की मेंहदी महकती रही