भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये जो कुछ ज़ख़्म खिले है यारों / शेरजंग गर्ग
Kavita Kosh से
ये जो कुछ ज़ख़्म खिले हैं यारो!
दर्द के लालकिले हैं यारो!
दिश्मनों में तो कोई दोस्त नहीं,
किसलिए शिकवे-गिले हैं यारो!
बात करने को ज़ुबाँ है आज़ाद,
होंठ से होंठ सिले हैं यारो!
हम ज़मीनों पे टिके है अपनी,
वो ज़मीरो से हिले हैं यारो!
बस्तियाँ दिल की बसी हैं जिसमें,
चन्द सपनों के ज़िले हैं यारो!
वाह! क्या बात है, क्या सादगी-सच्चाई है,
आज हम हमसे मिले हैं यारो!