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ये मंज़र देख के हमको परेशानी नहीं होती / 'महताब' हैदर नक़वी
Kavita Kosh से
ये मंज़र देख के हमको परेशानी नहीं होती
तबीअत में अगर थोड़ी-सी नादानी नहीं होती
ये सब कार-ए-जुनूँ कार-ए-तमन्ना में बदल जाता
जो इन दुश्वारियों में एक आसानी नहीं होती
हमारे दिन हमारे वास्ते इक बोझ बन जाते
अगर रातों पे ख़्वाबों की निगहबानी नहीं होती
इधर, इस पार सारा जिस्म ग़र्क़-ए-आब है लेकिन
उधर उस पार अब दरिया में तुग़ियानी नहीं है
कस-ओ-नाकस के आगे क्यों सर-ए-पिन्दार झुकता है
कभी सिजदों से ख़ाली ये पेशानी नहीं होती