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ये महँगे दस्ताने / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
ये महँगे दस्ताने मैंने हाथ नहीं माने
लाख बार समझौते लेकर
आए तहखाने
कभी अभावों ने झुँझला कर
गाली चिपका दी
घोषित कर डाली मेरी
आज़ादी, बरबादी
शब्द उछलने लगे पीठ के पीछे
बचकाने
पर्वत समो दिया छाती में
सूखी रोटी ने
भय की दी गर्दन मरोड़
भीतर के योगी ने
चश्मों की अभ्यासी आँखें
लगीं चौंधियाने