योद्धाओं की विश्राम भूमि / रोके दाल्तोन / अनिल जनविजय
दिन-प्रतिदिन
बेचैनी बढ़ती जा रही है मृतकों की ।
पहले वे बेहद सहज रहते थे
हम उन्हें मालाएँ पहनाते थे
लम्बी-लम्बी सूचियों में उनके नाम जोड़कर
उनकी तारीफ़ किया करते थे ।
वे हमारी मातृभूमि का मन्दिर थे,
हम उनकी छाया में जीना चाहते थे,
दैत्यों की तरह बड़े-बड़े
संगमरमर के स्मारक बनाते थे उनके।
अपनी भावी पीढ़ियों के लिए
उनके नाम हमने अपने इतिहास में लिखे थे ।
वे फिर से अपने दस्तों में वापिस लौट आए थे
और उन्हीं पुरानी धुनों पर प्रयाण कर रहे थे ।
लेकिन अब ऐसा नहीं होगा,
मृतक अब सहज नहीं रहे,
वे बदल गए हैं ।
सभी विडम्बनाएँ उनके साथ हैं
और वे सवाल पूछ रहे हैं ।
मुझे लगता है कि उन्हें
यह अहसास होने लगा है
कि उनका बहुमत होने जा रहा है ।
मूल स्पानी से अनुवाद " अनिल जनविजय
लीजिए, अब यही कविता मूल स्पानी में पढ़िए
Roque Dalton
El Descanso del Guerrero
Los muertos están cada día más indóciles.
Antes era fácil con ellos:
les dábamos un cuello duro una flor
loábamos sus nombres en una larga lista:
que los recintos de la patria
que las sombras notables
que el márbol monstruoso.
El cadáver firmaba en pos de la memoria
iba de nuevo a filas
y marchaba al compás de nuestra vieja música.
Pero qué va
los muertos
son otros desde entonces.
Hoy se ponen irónicos
preguntan.
Me parece que caen en la cuenta
de ser cada vez más la mayoría!