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रखो मत अँधेरे में दो मुझे निरखने / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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आर रेखो ना अँधारे, आमाय देखते दाओ

रखो मत अँधेरे में दो मुझे निरखने ।
तुममें समाई लगती हूँ कैसी, दो यह निरखने ।
चाहो तो मुझको रुलाओ इस बार, सहा नहीं जाता अब
दुःख मिला सुख का यह भार ।।
धुलें नयन अँसुवन की धार, मुझे दो निरखने ।।
कैसी यह काली-सी छाया, कर देती घनीभूत माया ।
जमा हुआ सपनों का भार, खोज खोज जाती मैं हार—
मेरा आलोक छिपा कहीं निशा पार,
मुझे दो निरखने ।।


मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल

('गीत पंचशती' में 'पूजा' के अन्तर्गत 143 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)